आधुनिक चेतना की मूल्यपरक जीवंत कहानियां

वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार प्रमोद भार्गव की कहानियाँ समकालीन समाज की विडंबनाओं और ज्वलंत मुद्दों की तह में उतरती हैं। उनका कथा-संग्रहॉ प्रमोद भार्गव की चुनिंदा कहानियाँ बीस कहानियों का ऐसा दस्तावेज़ है, जो न केवल साहित्यिक संवेदना से समृद्ध है, बल्कि समाज की उन परतों को भी उजागर करता है जिन्हें आमतौर पर उपेक्षित कर दिया जाता है। यह संग्रह पत्रकार की दृष्टि और साहित्यकार की भाषा का सुंदर संगम हैं। प्रमोद भार्गव की सबसे बड़ी ताकत, विषयों की विविधता और उनके प्रति खोजी दृष्टिकोण। चूँकि वे लंबे समय से सक्रिय पत्रकार रहे हैं इसलिए उनके पास ज़मीनी अनुभवों का बड़ा कोष है। वे महज कहानियाँ नहीं लिखते, बल्कि उन कहानियों के जरिए समाज के भीतर छिपी विसंगतियों, विडंबनाओं और विरोधाभासों को उजागर करते हैं।

'परखनली का आदमी' एक ऐसी कहानी है जो कृत्रिम गर्भाधान, विज्ञान की नैतिक सीमाओं और पितृत्व की पहचान के संकट को गहराई से उठाती है। यह कहानी सिर्फ जैविकी या विज्ञान की नहीं, एक गहरे सामाजिक और मनोवैज्ञानिक इंद्र की कथा बन जाती है। इसमें लेखक ने दिखाया है कि तकनीकी उनति के बावजूद मानव संबंधों की जटिलता और संवेदना कितनी उलझी हुई है यानी 'परखनली का आदमी' तकनीक की प्रगति के साथ भावनाओं के क्षरण की मार्मिक चेतावनी है। यह दर्शाती है कि जब जीवन केवल प्रयोग बन जाए और रिश्ते केवल यंत्रवत प्रक्रिया, तो मनुष्यता खो जाती है। यह कथा संवेदना और विज्ञान के बीच संतुलन की आवश्यकता रेखांकित करती हैं ।

'कोख में शिशु' कहानी की शुरुआत ही पाठक को एक गहरे भावनात्मक झटके से परिचित कराती है। जहाँ एक अजन्मी कन्या माँ से संवाद करती है और भ्रूण हत्या के भय से प्रश्न उठाती है। यह संवाद कल्पना में है, पर यथार्थ से गहरे जुड़ा हुआ महसूस होता है। मातृत्व, अपराधबोध और सामाजिक दबावों की त्रासदी को लेखक ने अत्यंत मार्मिकता से प्रस्तुत किया है। यह एक ऐसी कथा बन जाती है, जो पाठक के भीतर प्रश्नों की गूँज छोड़ जाती है।

 

'पहचाने हुए अजनबी' कहानी में अजनबियत का भाव केवल बाहरी नहीं, बल्कि मानसिक और सांस्कृतिक दूरी से उपजा है। जिसे अंततः बच्चे 'मनु' के स्पर्श और निश्छल हँसी में पिघलते देखा जाता है। यह अंत हमें याद दिलाता है कि संबंध खून से नहीं, अपनत्व से बनते हैं। लेखक ने बहुत सहज ढंग से एक कानूनी, नैतिक और भावनात्मक संघर्ष को एक मानवीय स्पर्श से विराम दिया है।

यह कहानी आज के समय में नियोजित 2 गर्भाधान, सरोगेसी, और पारिवारिक स्वीकृति जैसे मुद्दों पर गहरी बात कहती है, बिना किसी शोरशराबा के। कहानी 'पूर्ण-बंदी' की शुरुआत ही पाठक को एक विडंबनापूर्ण दृश्य में खींच लेती है, जहाँ शंख, घटियाँ, श्लोक और संस्कृति की तथाकथित रक्षा के बीच आधुनिक अपार्टमेंट में प्रज्ञा जैसे पात्र का प्रवेश होता है। लेखक ने परंपरा और आधुनिकता के टकराव को अत्यंत व्यंग्यात्मक लेकिन सधी हुई भाषा में प्रस्तुत किया है।

मिश्रा जी जैसे पात्रों के माध्यम से धार्मिकता के बाह्य प्रदर्शन और गंभीर चिंतन के अभाव को बेनकाब किया गया है। प्रज्ञा का व्यंग्यात्मक सवाल, आपको तो किसी कॉलेज में संस्कृत या दर्शन शास्त्र की प्रोफेसर होना चाहिए था? इस पूरी स्थिति का तीखा विश्लेषण बन जाता है। यह कहानी सांस्कृतिक आडंबर, स्त्री चेतना और सामाजिक दिखावे पर बात करती है। लेखक द्वारा चुना गया यह शीर्षक 'शीलभंग स्त्री और लोकतंत्रीय तमाशा' अपने आप में अत्यंत तीव्र, मार्मिक और विचारोत्तेजक है। यह शीर्षक सिर्फ कथा की विषयवस्तु का संकेत नहीं देता, बल्कि समकालीन समाज और राजनीति में स्त्री की स्थिति, व्यवस्था की संवेदनहीनता, और न्याय के खोखले ढांचे पर एक तीखा व्यंग्य करता है। शीलभंग स्त्री कहें या स्त्री जीवन का त्रास यानी स्त्री की देह और अस्मिता पर होने वाले हमले केवल व्यक्तिगत नहीं, सामाजिक और मानसिक त्रासदी हैं। वहीं 'लोकतंत्रीय तमाशा' उस विरोधाभास को सामने लाता है जहाँ एक ओर संविधान समानता और न्याय की बात करता है, लेकिन व्यवहार में पीड़िता को ही संदेह और अपमान का पात्र बनना पड़ता है। यह शीर्षक कहानी के मूल स्वर स्त्री के न्याय की तलाश और व्यवस्था की विफलता को बखूबी समेटता है, और पाठक को उस मर्म की ओर ले जाता है जहाँ लोकतंत्र की असल परीक्षा होती है। इस कहानी का शीर्षक केवल नाम नहीं, एक सवाल है। समाज और लोकतंत्र पर।

'लौटते हुए', और 'किराएदारिन' जैसी कहानियाँ रिश्तों की ऊपरी परत को हटाकर उसमें छिपी अजनबियत, अकेलापन और विस्थापन को उभारती हैं। इनमें पात्र भले ही परिचित लगते हैं, लेकिन उनके भीतर का अकेलापन, असुरक्षा और अस्तित्व का संकट उन्हें 'पहचाना हुआ अजनबी' बना देता है। 'फेसबुक' और 'ल से लड़की' बेहद समकालीन कहानी है जो सोशल मीडिया की दुनिया में रिश्तों की आभासी प्रकृति और उसकी सीमाओं को उजागर करती है। प्रमोद भार्गव यहाँ भी तकनीक के बढ़ते प्रभाव और सामाजिक सरोकारों के बीच टकराव को बहुत सूक्ष्मता से पकड़ते हैं।

उसी तरह 'कहानी विधायक विद्याधर शर्मा की' सत्ता, भ्रष्टचार और राजनीति के चरित्र को उजागर करती है। यह कहानी उस चेहरे को बेनकाब करती है जो लोकतंत्र की आड़ में जनतंत्र का शोषण करता है। प्रमोद भार्गव जी की यह कथा शैली कहीं भी उपदेशात्मक नहीं होती, बल्कि वह यथार्थ को इस तरह सामने रखती है कि पाठक खुद निर्णय ले सके कि वह किस परिवेश में जी रहा है। इस संग्रह की कहानियों में एक स्पष्ट सामाजिक सरोकार, तीव संवेदनशीलता, और विचारशीलता है। उनके पात्र आमजन हैं। किसान, किराएदार, शिक्षक, पत्रकार, और घर-गृहस्थी में उलझी स्त्रियाँ। वे ऐसे पात्र नहीं जो समाज से अलग हों, बल्कि समाज के भीतर से उभरते हैं और उसी में उलझते हैं। भाषा सहज, साफ़ और संवादधर्मी है। कहीं-कहीं भाषा में पत्रकारिता की सी तेजी और तथ्यात्मकता भी दिखती है, जो पाठकों को तुरंत बाँध लेती है। संवादों में वास्तविकता और कथा टोन में विनम्र लेकिन स्पष्ट आलोचना है। कुल मिलाकर, 'प्रमोद भार्गव की चुनिंदा कहानियाँ एक ऐसा संग्रह है जो समकालीन हिंदी कहानी को समाज के आईने में देखने का अवसर देता है। यह संग्रह पत्रकारिता और साहित्य के बीच पुल की तरह है, जहाँ शब्दों में संवेदना भी है और तथ्यों में सच्चाई भी।

प्रमोद भार्गव जी की 'अपनी बात' इस बात को रेखांकित करते है कि कहानी रचना केवल कल्पना नहीं, अनुभव, जटिल प्रश्नों और संवेदनशील मुठभेड़ों का परिणाम होती है। वे कथा को सृजनात्मक कर्म मानते हैं, जिसमें परिवेश, पात्र और भाषा की शुद्धता के साथ लेखक का आत्मसंघर्ष भी शामिल होता है। यह स्पष्ट करता है कि हर कहानी लेखक को अंतः दृष्टि, सामाजिक अनुभव और कलात्मक अभ्यास का परिणाम है। यह संग्रह उन सभी पाठकों के लिए अनिवार्य है जो हिंदी साहित्य के साथ एक पत्रकार की नजर से सामाजिक यथार्थ और विचार की कसौटी पर खुद को कसना चाहते हैं।

पुस्तक का नाम प्रमोद भार्गव की चुनिंदा कहानियां/लेखक-प्रमोद भार्गव /मूल्य - 535/- रुपए

प्रकाशक प्रवासी प्रेम पब्लिशिंग, गाजियाबाद

पुस्तक समीक्षा

कल्पना मनोरमा,

समीक्षक